पथ के गीत (1951)

पथ के गीत (1951)

रामदरश मिश्र ने एक लंबी काव्य-यात्रा की है। यों तो उनका पहला काव्य-संग्रह 'पथ के गीत' 1951 में प्रकाशित हुआ किन्तु उन्होंने कविता लिखनी सन् 1940 के आस-पास ही शुरू कर दी थी। उनकी पहली प्रकाशित कविता है 'चाँद'। यह कविता गोरखपुर से प्रकाशित ' सरयू पारीण' पत्रिका के अंक 6 (जनवरी 1941) में छपी थी। सन् 42 में इन्होंने कवित्त सवैयों में 'चक्रव्यूह' नामक एक खंड काव्य भी लिखा। प्रारंभिक लेखन का यह दौर बिना किसी गहरी साहित्यिक समझ-बूझ के स्वतः स्फूर्त भाव से यों ही चलता रहा। साहित्यिक वातावरण से दूर अपने गाँव के परिवेश में कवि अपने गाँव-गिराँव की प्रकृति और सामाजिक जीवन के कुछ सत्यों को अपनी कैशोर भावुकता के साथ कच्चे ढंग से व्यक्त करता रहा ।

कवि का पहला संग्रह' पथ के गीत' सन् 51 में प्रकाशित हुआ। कवि ने इस संग्रह में सन् 1946 से 1951 के बीच लिखी गयी कविताओं में से कुछ को चुनकर संग्रहित किया। इससे पहले की कविताओं को उसने निर्मम भाव से नकार दिया। यह पहला संग्रह छायावादी प्रभाव के दौर की कविताओं का है। इसीलिए इसका स्वर मुख्यतः रोमानी तो है लेकिन इसमें प्रकृति और नारी-प्रेम की कविताओं के साथ-साथ राजनीतिक और सामाजिक चेतना की अनेक कविताएँ हैं। इस संग्रह में प्रकृति संबंधी कुछ ऐसे गीत हैं जो अनुभव, संवेदना और शिल्प की ताज़गी और व्यंजना लिये हुए हैं और जिनका बहुत सुंदर विकास कवि के आने वाले गीतों में हुआ।

सन् 1950 के बाद नयी कविता का दौर शुरू होता है। रामदरश मिश्र प्रगतिवादी दृष्टि लेकर नयी कविता की ओर बढ़े थे इसलिए सन् 1951 के बाद की उनकी कविताओं में नयी कविता में लक्षित होने वाले परिवेश जन्य अनुभव की ताज़गी है। लोक प्रकृति की विविध संवेदनाओं और रंगों को लोक संस्पर्श वाली भाषा में रूपायित किया गया है। अपने समय में उठने वाले अनेक प्रश्नों और मूल्यों को संवेदना में रूपांतरित करके व्यक्त किया गया है। चूँकि कवि की दृष्टि मार्क्सवादी रही है इसलिए वह नयी कविता के क्षेत्र में आने वाले व्यक्तिवादी चेतना के कवियों से अलग है और दूसरी ओर वह उन प्रगतिवादी कवियों से भी अलग है जो मार्क्सवाद के नारे लगाते हैं या जो कुछ खास प्रकार के जीवन में ही साहित्य पाते हैं। कवि की इस दौर की कविताओं का संग्रह ग्यारह साल बाद (सन् 1962 में) आया- 'बैरंग-बेनाम चिट्ठियाँ' नाम से। इस लंबी अवधि में कवि ने बहुत सी कविताऐं लिखी थीं लेकिन संग्रह में सबका समावेश संभव नहीं था, इसलिए वे बाहर रह गईं। पत्र-पत्रिकाओं में छपने के बावजूद वे कवि के संग्रहों से बाहर रही हैं।

तीसरा संग्रह' पक गई है धूप' 1969 में भारतीय ज्ञानपीठ में आया। स्पष्ट है कि इस संग्रह की कविताएँ सन् साठ के बाद की हैं। साठ के बाद का समय मोहभंग का समय माना गया है। इस मोहभंग को लेकर हिन्दी कविता में न जाने कितने वाद उग आये। रामदरश मिश्र किसी वाद से नहीं अपने समय से प्रभावित होने वाले कवि हैं और उनका सामाजिक मन और मूल्य दृष्टि हर दौर में सजग रही है। इसलिए 'पक् गई है धूप' की कविताओं में अपने समय के दबाव से उत्पन्न टूटन, निराशा स्वीकार-बोध दिखाई पड़ता है लेकिन अकविता और उसकी सहवर्तिन कविताओं में मोहभंग के नाम पर केवल यौन प्रसंगों से संदर्भित अश्लीलता, जिज्ञास और निषेध में ही रस लेने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है।”