पानी के प्राचीर (1961)

पानी के प्राचीर (1961)

'पानी के प्राचीर' रामदरश मिश्र का प्रथम उपन्यास है जिसका प्रकाशन सन् 1961 में हुआ । इस उपन्यास की कथा स्वाधीनता प्राप्ति के पूर्व की है, जिसमें पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के एक अभावग्रस्त गाँव पाण्डेपुरवा के माध्यम से भारतीय गाँव की एक विशिष्ट एवं प्रामाणिक गाथा प्रस्तुत की गई है। लेखक ने इस उपन्यास के रचाव में संवेदना के इकहरे विधान की जगह अपनी कलात्मक दृष्टि से गाँव के संश्लिष्ट और समग्र यथार्थ को बड़ी गहराई से रूपायित किया है। उपन्यास का प्रारम्भ गाँव के प्राकृतिक परिवेश में फागुनी पूनों की डह-डही चाँदनी में नगाड़े पर चौताल गाते पाण्ड़ेपुरवा के लोगों के हर्षोल्लास के समवेत स्वरों से होता है और अन्त देश के स्वतंत्रता प्राप्ति के उपलक्ष्य में हुए स्वागत समारोह में नारे लगाते लोगों की हर्षित भीड़ से। लोगों का जुलूस बाढ़ की ओर हाथ उठा उठा कर घोषणा कर रहा था- " पानी की दीवारें टूटेंगी। बाहर से नई रोशनी आयेगी, खेतों में नये सपने खिलेंगे।" नारों के इस समवेत स्वरों में गाँव का हर्षोल्लास बोल रहा था।

प्रारम्भ और अन्त के हर्षोल्लास के बीच गाँव के अन्धविश्वास, दुःख दर्द, जड़ता, शोषण, उत्पीड़न, ऊँच-नीच, नये-पुराने मूल्यों की टकराहट, फटेहाली, आर्थिक परेशानियाँ, बाढ़ की मार से उजड़ते कछार अंचल के लोगों को कथा-सूत्र में पिरोने का प्रयास किया है। पांडेपुरवा गाँव की भौगोलिक स्थिति भी अपने परिवेश की रेखाओं से उस जीवन के दुःख दर्दों को भी इंगित करती है। पाण्डेपुरवा गाँव के विषय में लेखक कहता है कि - 'पानी के प्राचीर' का कथांचल गोरखपुर जिले में 'राप्ती' और 'गोरी' नदियों की धाराओं से घिरा हुआ एक विशाल भू-भाग है, जो युगों से अपनी सारी हरियाली इन नदियों की भूखी धाराओं को लुटा कर केवल विवशता, अभाव और संघर्ष के रूप में शेष रह गया है। संसार के सारे सूत्रों से कटा हुआ यह प्रदेश अपने आप में एक संसार है। यहाँ न सडकें हैं, न शिक्षा संस्थाएँ हैं, न सुविधा-पूर्ण डाकखाने हैं, न सुरक्षा के लिए पुलिस चौकियाँ हैं, न चिकित्सालय हैं, न खेतों के सुधार और विकास के लिए कोई सरकारी' या गैर सरकारी व्यवस्था है। यहाँ है असूझ गरीबी, व्यापक अशिक्षा, अजगरों की तरह बल खाते दौड़ते ऊँचे नीचे नाले, बीमारी, बेकारी, आपसी फूट और सदियों पुरानी जर्जर नैतिक मान्यताएँ। पांडेपुरवा की आर्थिक स्थिति बड़ी विडंबना पूर्ण है । आर्थिक विसंगतियों एवं रोजी रोटी के सीमित साधनों के कारण सारा गांव ही टूट कर बिखर गया है । इस अंचल में बाढ़ आती है चली जाती है किंतु छोड़ जाती है अनेक अनुत्तरित प्रश्न चिंतित ग्रामीण दैनिक जीवन की जरूरत की पूर्ति के लिए इधर-उधर विचरण करता रहता है ।

आजादी के लिए गाँव वालों ने क्या- क्या नहीं किया और क्या-क्या नहीं झेला। इस वीरान प्रदेश में नेता आते हैं केवल वोट लेने, सरकारी कर्मचारी आते हैं लोगों को लड़ाकर अपना उल्लू सीधा करने। इस तराई के क्षेत्र में 'राप्ती' और 'गौर्रा' नदियाँ तो आर्थिक जिन्दगी को तोड़ती ही हैं, यहाँ अनेक तरह की विसंगतियाँ, अभाव और विवशताएँ जिन्दगी को तनावपूर्ण बनाए रहती हैं। जीवन के समस्त तत्त्वों और पक्षों को उभारने के पीछे लेखक का लक्ष्य इस भूभाग की चेतना का साक्ष्य प्रस्तुत करना रहा है। "स्थानीय जीवन के समस्त सत्यों और पक्षों को चित्रित कर इस भूभाग के संश्लिष्ट व्यक्तित्व को उभारना ही इसका लक्ष्य है। इसीलिए कथानक एक-दिशा-प्रवाही नहीं है, वह अनेक कोणों से उभरती जीवन कथाओं की संश्लिष्ट बुनावट है ।"

उपन्यास की मुख्य कथा सत् और असत् के संघर्ष की कहानी है। यद्यपि आर्थिक एवं सामाजिक संघर्ष भी इसके साथ जुड़े हैं। "पाँडेपुरवा गाँव के जन-जीवन का, उसकी समस्याओं, लोकमान्यताओं, अन्धविश्वासों, परम्पराओं, लोकगीतों का अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से चित्रण उपन्यास की विशेषता है। राष्ट्रीय आन्दोलन के संदर्भ से जुड़कर यह चित्रण इतना सुन्दर और मार्मिक बन गया है कि 'पाण्डेपुरवा' ग्राम 'मेरीगंज' की प्रतिस्पर्धा में खड़ा हो जाता है।" 'पानी के प्राचीर ' स्वतंत्रता संग्राम में अपना अस्तित्व खोजते गाँव की कहानी है। साफ तौर पर स्वतंत्रता से उपजी गहरी आशावादिता इस उपन्यास का उपजीव्य है। संपूर्ण देश के समूह मन का प्रतिनिधि गरीबी में अभाव असुविधा में पला नीरू है । वह बाहर से जितना विपन्न है, भीतर से उतना ही टूटा हुआ है।रामदरश मिश्र ने इस उपन्यास में भारतीय मुक्ति संघर्ष में ग्रामीणों की भागीदारी को गहराई से अंकित किया है, जिससे हमें भारतीय राजनीति और राष्ट्रीय धारा में ग्रामीण जनता की साझेदारी का पता चलता है। उपन्यास के गांव पांडेपुरवा में राजनीतिक चेतना का उभार गांव के गरीब लोगों में दिखाया गया है।

कहा जा सकता है कि 'पानी के प्राचीर ' आंचलिकता की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण उपन्यास है जो अपने प्रामाणिक अनुभवों की विपुल संपदा से कछार आंचल की राजनीतिक ,सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जिंदगी की संश्लिष्ट कथा कहता है ।”