दिन के साथ

दिन के साथ
Author | रामदरश मिश्र |
Year of Issue | 2002 |
Publication Name | वाणी प्रकाशन |
Link | https://www.amazon.in/-/hi/Ramdarash-Mishra/dp/8170559723 |
Description
जीवन की किसी मामूली-सी घटना, प्रसंग, विचार या संवेदना में रामदरश मिश्र अपनी कहानी के लिए अपेक्षित सामग्री जुटाकर एक ऐसी दुनिया की रचना कर डालते हैं जो हमारे अनुभव और बोध के अधिक समीप होती है। हम जैसा दुबारा और अपेक्षाकृत अधिक सावधानी के साथ अपने खुद के अनुभव-जगत में प्रवेश करते हैं-अपनी दुनिया को और उस दुनिया के बीच खुद अपने-आपको एक नये ढंग से प्राप्त करने के लिए। वे चीजें जिन्हें अब तक हमने देखकर भी नहीं देखा था, वे स्थितियां जिनको लेकर हमारे अंदर किसी प्रकार की प्रतिक्रिया पैदा नहीं हुई थी, वे समस्याएं और वे प्रश्न जिनकी चुभन हमने अब तक महसूस नहीं की थी, अचानक हमें उत्तेजित और आंदोलित करने लगते हैं। वस्तुतः अब तक की हमारी रंगहीन और आकारहीन दुनिया जो बेमेल और असंबद्ध किस्म की घटनाओं की उपस्थिति का अहसास भर जगाती थी, एक नई सार्थकता ग्रहण करने लगती है। एक घटना दूसरी घटना के साथ कार्य-करण के संबंध से जुड़ी दिखाई देने लगती है, वह या तो किसी पूर्ववर्ती घटना का परिणाम होती है, या उसका कारण उसमें मानव-संकल्प, संवेदना, विचार और स्वप्न का संकेत मिलने लगता है। यह सच है कि मिश्रजी अपनी कहानियों में बाह्य घटनाओं से अपेक्षाकृत अधिक काम लेते हैं। उनकी कुछ अच्छी कहानियों के केन्द्र में भी कोई स्थूल घटना-ज्यादातर किसी पात्र की मृत्यु की घटना हो सकती है। किसी पात्र की आकस्मिक मृत्यु के इर्द-गिर्द विषाद और करुणा की तीव्र संवेदनाएं, हृदय को पीड़ा से भर देनेवाली भावस्थितियां उभरती हैं। पहली दृष्टि में उनकी कथा-संरचना की इस युक्ति पर हम थोड़े सावधान बनते हैं। सोचते हैं कि क्या लेखक इन आकस्मिक प्रसंगों और उनसे जुड़ी स्थितियों से अपने-आपको बचा नहीं सकता था? लेकिन कहानी की संरचना में थोड़ा गहरे उतरने पर यह बात स्पष्ट होने लगती है कि जिसे हमने आकस्मिक समझ लिया था, वह न तो जिंदगी में आकस्मिक है और न ही कहानी में।
- महावीर सिंह चौहान