बनाया है मैंने ये घर धीरे -धीरे

बनाया है मैंने ये घर धीरे -धीरे

Author रामदरश मिश्र
Year of Issue यश पब्लिकेशन्स
Publication Name 2019
Link 1/10753,सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, दिल्ली -110032

Description

कविताएं रामदरश जी की रचनात्मकता का पुराना ठीहा हैं तो गुज़लें उनके कवित्व का नया विस्तार। हिंदी ग़ज़लों की जो दिशा कभी दुष्यंत कुमार जैसे ग़ज़लगो ने रखी, हिंदी के अनेक समर्थ ग़ज़लकारों ने उसे आगे बढ़ाया है। रामदरश मिश्र उनमें एक हैं जिनके अब तक कई ग़ज़ल संग्रह आ चुके हैं। बाज़ार को निकले हैं लोग-उनका पहला संग्रह था जो ग़ज़ल की दुनिया में उनका पहला कदम था। उसके बाद जैसे-जैसे उनकी ग़ज़लों को लोकप्रियता मिलती गयी, वे गीतों की दुनिया से ग़ज़लों में शिफ्ट होते गए। ग़ज़ल उनकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति का एक नया विस्तार सिद्ध हुईं। आज वे भले एक जाने-माने कथाकार, उपन्यास व कवि के रूप में पहचाने जाते हों पर उनकी ग़ज़लगोई उनके कवित्व के सम्मुख कम महत्वपूर्ण नहीं। तभी तो उनकी एक ग़ज़ल इतनी मकबूल हुई कि उनकी वह पहचान बन गयी। वे आज भी जहां जाते हैं वह ग़ज़ल फरमाइश पर सुनाते है। उसमें जीवन का जो फलसफा है वह लोगों को बहुत भाता है और बोलचाल की लय में वह ग़ज़ल आज लोगों की जबान पर चढ चुकी है। वह ग़ज़ल है: बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे खुले मेरे ख्वाबों के पर धीरे-धीरे ।

 

उनकी ग़ज़लों में प्रेम, प्रकृति, शहर, गांव, मनुष्य, घर-परिवार एवं निजी अनुभवों की तमाम यात्राएँ शामिल हैं। सामाजिक राजनीतिक जीवन की विडंबनाएं भी। धार्मिकता के स्याह चेहरे भी। पर आम आदमी के पक्ष में उनकी आवाज में करुणा नजर आती है। इन ग़ज़लों में उनका अपना जीवन भी छन कर आता है: जाने कब से हूँ पड़ा हुआ प्रोफेसर बन कर दिल्ली में / पर भीतर जो है बसी हुई वह ठेठ किसानी याद आई। कुल मिला कर रामदरश जी की ग़ज़लों में उम्दा कथ्य है तो उसे पापुलर रिद्म में ढालने की कोशिश भी। उनके इस कौल-करार में उनकी ज़िन्दगी ही नहीं, ग़ज़लों का भी फलसफा छिपा है।

 

बनाया है मैने ये घर धीरे-धीरे उनकी बेहतरीन ग़ज़लों का चयन है। यह उनकी 96वीं वर्षगांठ पर उन्हें और उनके पाठकों को समर्पित हैं- उनकी इस सीख के साथ कि दुनिया धीरे-धीरे बनती है, पेड़ धीरे-धीरे बड़े होते हैं, सफर धीरे-धीरे कटता है, जिन्दगी धीरे-धीरे अनुभवसिद्ध होती है। उनकी ग़ज़लें इस दिशा में एक मिसाल की तरह हैं। आज जितना बड़ा उनका कवि-कद है, उससे छोटी उनके शायर की शख्सियत नहीं है।

 

- ओम निश्चल